मैं सरल इक प्रश्न- जैसा ,
सर्वदा तेरे लिए हूँ ।
इसलिए प्रिय ! रंच तुझको
है कभी हल की न चिंता ।
यक्ष प्रश्नों- सा कठिन मैं ,
बन न पाया हूँ प्रणय में।
द्रष्ट्य जो तुझको न होता,
कुछ न ऐसा है हृदय में।
और मैं भी कर्म रत हूँ ,
है मुझे फल की न चिंता।
इसलिए प्रिय ! रंच तुझको ,
है कभी हल की न चिंता ।
जानता हूँ अर्थवत्ता ,
खो चुकी है धुर सरलता ।
ज्ञात इससे अंतरण में,
प्राप्त होती है विफलता।
किन्तु मैं चातक अभागा —-
है जिसे जल की न चिंता।
इसलिए प्रिय ! रंच तुझको,
है कभी हल की न चिंता।
– अनुराधा पांडेय , द्वारिका , दिल्ली