सुबह होते ही आपाधापी
थोड़ी देर लग गई आँख
कोसती खुद को हजार बार
हमेशा अव्वल आने की है चेष्टा।
थोड़ी सिलवट रह गई बिस्तर में
झाला थोड़ा सा लग चुका,
चलो पहले बना लो चाय
खुद से ही होती प्रतियोगिताएं।
देते रहती खुद ही परीक्षा
फिर होती आँकलन समीक्षा
खुद का करना है मूल्यांकन
अब खुद के संग जीने की इच्छा।
दूध उबल कर बन गया खोवा
कोई बात नहीं बन जाएगा पुआ
बन गई सब्जी थोड़ी झाल
क्या करना हो जाये बवाल।
जब से मिल गया मुझे विकल्प
समस्याएं मेरी हो गई अल्प
अब नहीं होती आपाधापी
कब और कैसे काहे की परीक्षा?
परीक्षार्थी, परीक्षक, समीक्षक,
बनी अब खुद की खुद से
हो गया मुझको ये आत्मसात
फिर लोगों की क्या बिसात।
रहना है अब मस्त मलंग
सीख लिया जीने का ढंग।
– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर