जब अन्हार नभ छाईल रहे,
बन दीपशिखा आईल रनीं,
सब व्यर्थ भइल आनाजाना,
दुखिया पीड़ा ना हर पइनी।
सोंचीं धरती पर का कइनी?
अपने सुखदुख में लीन रनी,
नित यहाँ वहा तल्लीन रनी,
मृगतृष्णा में लिपटल रहनी,
अपनो झोली ना भर पइनी।
सोंचीं धरती पर का कइनी?
ई समय धुनी धुन मतवाला,
चित व्याकुल हो पीये हाला,
दिनरात इहे बस सोंच रहें,
हम हरदम राह भटक गइनी।
सोंची धरती पर का कइनी?
बेचैनी जीवन के घेरे,
चिंतित मन मालाके फेरे,
मन व्यथित रहे चितकार करे,
जीवन पंछी ना धर पइनी।
सोंची धरती पर का कइनी?
– अनिरुद्ध कुमार सिंह
धनबाद, झारखंड