वो दो ऑंखें तुम्हारी
पीठ पर ही जमी हुई।
हो गई है एक सदी
पीठ के बल सोई नहीं।
यूँ ही करवट सोते हुये
बीत गया जमाना,
ना जाने उन अँखियों से
कब होगा सामना।
स्यात मदन तुम पढ़ लेते
आकर मेरी आँखों को।
तो यूँ ना हम करवट में सोते
कई सदी से रातों को।
अब मौन ही रह गई प्रिये
हमारी ये कहानी।
प्रीत पर निभाई है
हमने तो बेजुबानी।
– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर