साथ चलते हुए ’देखे कई मंजर हमने-
उलझते ही रहे आँखों से सुनहरे सपने,
ख़ुशनुमा भोर, मुदित शाम,थकी दोपहरी-
ज़िंदगी लगने लगी जैसे सरित हो गहरी.
डूबकर जान लिया वक़्त चाल चलता है-
झूठ पीछे पड़े तो सच भी हाथ मलता है,
प्यार की बूँदों से तन-मन का भीगता मंज़र-
न जाने कैसे लगी काल की वो काली नज़र.
सिसकते ख़्वाब सिखाने लगे अब धीरे चलो-
छीन ले वक़्त सख़्त तख़्त गर,न हाथ मलो,
‘साथ चलते हुए’भी छलते थे सारे अपने-
दूर रहकर लगे कुछ ग़ैर भी हमें अपने.
– डा. अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली