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उठती उंगली और पर – डॉo सत्यवान सौरभ

बहरूपियों के गाँव में, कहें किसे अब मीत।

अपना बनकर लूटते, रचकर झूठी प्रीत॥

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भाई-भाई में हुई, जब से है तकरार।

मजे पड़ोसी ले रहे, काँधे बैठे यार॥

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मानवता है मर चुकी, बढ़े न कोई हाथ।

भाई के भाई यहाँ, रहा न ‘सौरभ’ साथ॥

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भाई-बहना-सा नहीं, दूजा पावन प्यार।

जहाँ न कोई स्वार्थ है, ना बदले का ख़ार॥

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शायद जुगनूं की लगी, है सूरज से होड़।

तभी रात है कर रही, रोज़ नये गठजोड़॥

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रोज बैठकर पास में, करते आपस बात।

‘सौऱभ’ फिर भी है नहीं, सच्चे मन जज़्बात॥

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‘सौरभ’ सब को जो रखे, जोड़े एक समान।

चुभें ऑलपिन से सदा, वह सच्चे इंसान॥

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सीख भला अभिमन्यु ले, लाख तरह के दाँव।

कदम-कदम पर छल बिछें, ठहर सके ना पाँव॥

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जो ख़ुद से ही चोर है, करे चोर अभिषेक।

उठती उंगली और पर, रखती कहाँ विवेक॥

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जब से ‘सौरभ’ है हुआ, कौवों का गठजोड़।

दूर कहीं है जा बसी, कोयल जंगल छोड़॥

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ये कैसा षड्यंत्र है, ये कैसा है खेल।

बहती नदियाँ सोखने, करें किनारे मेल॥

– डॉo सत्यवान सौरभ,,333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी)

भिवानी, हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148, 01255281381

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