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भावनाओं से ओत-प्रोत संग्रह है माँ तुम जीवंत हो – सचिन बनवाल

neerajtimes.com – माँ तुम जीवंत हो (भावांजली) पुस्तक को पूरी तरह पढ़ने के बाद, मेरा मेरी माँ के लिए नजरिया बदल चुका है। एक अलग ही अनुभव के साथ मैं अपने नए जीवन की शुरुआत करने जा रहा हूँ। घर का बड़ा बेटा मतलब लापरवाह बेटा। मेरा लगाव आज तक मेरी माँ व मेरे पिता से बस अनकहा सा रहा है।

हमेशा अपनी जरूरत के हिसाब से मेरे जुबां पर माँ का नाम आया है। परंतु आज यह पुस्तक पढ़कर, मुझे एहसास हुआ है कि एक माँ से बच्चे का वियोग क्या होता है,

क्या होता है दूध न मिलना और भूख लगते जाना,

क्या होता है, नींद न आना रात भर जगते जाना,

क्या होता है, माँ का आँचल सर पर न होना,

क्या होती है ममता, और क्या होता आँसू न निकलना और मन का रोना।

मैं अपनी माँ से अपनी सारी गलतियां मानकर, एक अच्छा बेटा होना चाहता हूँ, खुश किस्मत हूँ मैं कि मैंने अपनी माँ को नहीं खोया, बस उनके गले लग कर रोना चाहता हूँ। भावना सागर बत्रा जी मैं आपका शुक्रगुजार हूँ, माँ के लिए मर्म मेरे अंदर जाग्रत करने में आपकी कलम माध्यम बनी।

मैं प्रण लेता हूँ, मैं अपनी माँ से जुड़े हर बंधन की लाज रखूँगा।

तोड़ दूंगा निजी जीवन से जुड़े कच्चे धागे सभी, बस माँ की ममता का लिहाज़ करूंगा।

माँ है तो ये रिश्ते नाते सब कुछ है, माँ नही तो मैं कुछ नहीं,

तुम कुछ भी नह, माँ नही तो कुछ भी कुछ नहीं।

आहिस्ता -2 मुझे, मेरी माँ का वो असीम प्रेम याद आने लगा है,

उनकी वो डांट याद आने लगी है उनका वो स्नेह याद आने लगा है।

मेरा घर से रूठकर चले जाने के बाद मुझे तलाशने के लिए पड़ोस के लोगो से हाथ जोड़ना।

देर रात तक मेरे लिए दरवाजा खुला छोड़ना।

फिर चोरी-चुपके से मुझे खाना खाते देख, बिस्तर पर करवट बदलकर दूसरी तरफ मुड़ना।

मेरा पेट भर जाने के बाद माँ का वो चुप्पी तोड़ना।

और आराम से कहना, आ गया तू, कहाँ गया था? कहाँ रह गया था? तुझे हम डांटते हैं क्योंकि तुझे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं।

सब कुछ याद आ रहा है माँ, और न जाने मेरी आँखें क्यों नम हो रही है।

ऐसा लग रहा था, जैसे मन में खिचती लकीरें, आहिस्ता-आहिस्ता नरम हो रही हैं।

मैने अनुभव किया है एक दर्द एक प्यारी सी बेटी का, कैसे उसकी माँ उसके बचपन की सहेली होती, कैसे उसकी माँ उसे प्यार से सहलाती है, जब वो अपनो की भीड़ में भी अकेली होती है। माँ से ही तो दुख-सुख सब कुछ साझा करती है बेटी। बाकी रिश्ते कागजी लगते हैं जमाने के.. बस माँ को ही खोने से डरती है बेटी।

माँ की दी हुई सीख से तस्सली मन को देकर, सबके सामने चुप, माँ से ही रूठती और लड़ती है बेटी। माँ के लाड़ और स्नेह की लालसा रखती है उम्रभर। कहाँ, कब किसी और पर बिगड़ती है बेटी? बचपन से जवानी तक बस एक सहेली माँ हो, लाख आए, जाए मुसीबतें परंतु बेटी के लिए लड़ने वाली बस एक अकेली माँ हो, सदा ही दर्द ओ गम और जमाने की तोहमते खुद पर ले कर भी मुस्कुरा दे, ऐसी निडर और अलबेली माँ हो।

एक बेटी और माँ के रिश्ते को, बनते बिगड़ते रिश्ते, बनती बिगड़ती बातों को, जिस तरह से आपने पन्नों पर उतारा है, उसे बस लेखनी कहा जाए काफी नहीं होगा। एक पाठक के नज़रिए से अगर देखा जाए तो, भाव और एहसास, प्रेम वियोग, स्नेह, अधूरी इच्छाएं, आँसू, मुस्कान, हर तरह के भाव से परिपूर्ण पुस्तक है आपकी।

निस्वार्थ प्रेम की एक मूरत है माँ,

कितनी प्यारी कितनी भोली सी सूरत है माँ

बदनसीब होते है वो बच्चे, जिनकी माँ नही होती

मेरी तुम्हारी, हर एक की जरूरत है माँ।

माँ का होना किसी वरदान से कम नहीं, माँ का साथ स्वर्ग है जमीन पर, माँ के वियोग से बड़ा दूसरा कोई गम नहीं। माँ है तो हम खुशहाल है, माँ नही तो तुम-2 नही हम-2 नही। यकीनन आपकी माँ प्रभु के श्री चरणों से आपको निरंतर देख पा रही है, और अपनी प्यारी बेटी के लिए भगवान से अभी भी जीवन की सारी खुशियां माँग रही है। आपके द्वारा लिखी गई ये एहसासों भरी पुस्तक की बात बस पाठकों तक पहुंचने तक सीमित नहीं है, इस पुस्तक और इसे पढ़ने वालों के माध्यम से प्रभु तक पहुंचने में भी सक्षम है। जरूरी नहीं है जोगनिया का भेस धारण किया जाए, जरूरी नहीं द्वारे -2 भटका जाए। जरूरी नहीं सबको जुबां से कहकर दर्द बताया जाए, जरूरी नहीं अंतर्मन की भावनाओं को बताया जाए या जताया जाए। आपने सहारा कलम का लिया, वो अपने आप में दर्शाता है कि आप कितना कुछ मन में लिए बैठी है जिसे कहकर बता पाना नामुमकिन सा है।

मैं आपके लिए अच्छे भविष्य की कामना करता हूँ, और साथ ही साथ आपको आपकी पुस्तक के लिए बधाई देता हूँ। और आपका आभार व्यक्त करता हूँ, मुझे अभी तक जोड़ कर रखा, आपकी पुस्तक को पढ़ने के बाद मैं अपनी माँ के करीब आया।

भावना सागर बत्रा बहुत-बहुत आभार आपका, मैं भविष्य में भी आपकी लिखी रचनाएं पढ़ना चाहता हूँ।    – सचिन बनवाल (शून्य राणा), मुज़फ्फरपुर , बिहार

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