गुनगुनी दोपहर ढल चुकी,
आ गयी सर्द सघन यामिनी|
मृण्मयी नैनों में इंतजार लिए,
प्रतीक्षारत विकल कामिनी|
काले कुंतल अब हंस रहे,
आनन को ये तो डस रहे|
नागिन सी इसकी है लटें,
बेवजह ही ये तो उलझ रहे|
आ जाओ कि बिरहन तके,
सुने निलय में सेज सजे|
इंतजार है पर उर सस्मित,
हर आहट पर होती चकित|
वेणी के गजरे महक रहे,
मिलने को अलि से चहक रहे|
गजरे से पराग मधुप पिए,
खड़ी हूँ अंजुरी भर धूप लिए|
शलभ गजरे की ओट खड़े,
पीने को रस वो हैं अड़े|
वेणी से पुष्प बिखर गयी,
काया कंचन हो निखर गयी|
– सवितासिंह मीरा, जमशेदपुर