चाल कैसी खुदीने चली है,
भोर भी शाम होते ढ़ली है।
आदमी को बनाया खिलौना,
कब चला जो कहें की चली है।
रात-दिन दौड़ता बेकरारी,
राह में झाँकता हर गली है।
बेसहारा कदम डगमगाये,
बात में हरघड़ी दिलजली है।
कौन देता बताओ सहारा,
हायतौबा सदा दिलदली है।
क्या मिला जिंदगी में निहारे,
आह नफरत हवा में घुली है।
अब भरोसा करे क्या किसी पे,
फूल कांटा सजाये कली है।
कौन सपना सजाये यहाँ’अनि’,
हुक्म उनकी चली वो बली है।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड