शर्त थी पहली कि सब कुछ नाम उनके
पर समर्पण एक तरफ़ा कब फला है?
प्रेम के दुश्वार पथ पर कोई रिश्ता
एक पहिये पर भला कितना चला है?
जा रहे हम छोड़ कर ये प्रश्न तुम पर
हर अनर्गल दोष अब किस पर धरोगे ?
मन अहिल्या हो गया, तो क्या करोगे?
प्रेम की इस बेल को सींचो जतन से
फ़िर भी नव पातें बहुत हौले चढ़े हैं
भ्रम, जलन या झूठ की छाया पड़े तो
वेदनायें चक्रबृद्धि सी बढ़े हैं
भूल के आभास पर, ऋणमुक्त होने
ब्याज की हर किश्त एकाकी भरोगे।
मन अहिल्या हो गया, तो क्या करोगे?
आंसुओं के अर्घ्य से सिंचित करें और
जो कलुष मन आंगने में है, बुहारें
हर अमावस हारती है इक किरन से
बाद पतझड़ के सदा देखीं बहारें
है कसौटी पर रखा विश्वास अपना
राम आकर के मेरी पीड़ा हरोगे।
मन अहिल्या हो गया, तो क्या करोगे?
– पल्लवी त्रिपाठी, नोएडा, उत्तर प्रदेश