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वो इक माँ ही तो थी – विनोद निराश

उनींदीं आँखों से जागती,

प्रसव पीड़ा को सहती,

आकंठ वेदना को झेलती,

दर-ब-दर रही भटकती,

वो इक माँ ही तो थी।

 

सुब्हो हुई संध्या में परिवर्तित,

चहुँ ओर पीड़ाएं,

हताशा निराशा के घन,

झेलती रही अल-सुब्हों से निशा तक,

वो इक माँ ही तो थी।

 

इक लम्बे अंतराल के बाद,

ठहर सा गया हो वक़्त भी जैसे,

मगर वो प्रयासरत रही देर तलक,

धनात्मक ऊर्जा के साथ,

वो इक माँ ही तो थी।

 

फिर वक़्ते-शाम बदहवास सी,

लेट कर बिस्तर पर,

बिंदवाती अपने मरमरी जिस्म को,

देने किसी परिवार को वारिस,

वो इक माँ ही तो थी।

 

जैसे फट गई हो धरती,

झुक गया हो आसमां,

असहनीय दर्द से होती रू-ब-रू,

अचेत अधखुले नयनो में समेटे इंद्रधनुषी सपने,

वो इक माँ ही तो थी।

 

तत्क्षण निहारती व्योम को,

अचानक देखती वक्ष पर लेटे नवजात को,

नर्म गुलाबी ओष्ठौ को रखे स्तनों पर देख,

अनवरत स्पन्दित उन्मुक्त होती,

वो इक माँ ही तो थी।

 

एक उन्मुक्तता का अहसास,

खेलता स्वप्नों के आँगन में,

सहलाती अंगूठे और तर्जनी ऊँगली के बीच ,

नन्ही-नन्ही उँगलियों के पोरों को,

वो एक माँ ही तो थी।

 

आंखों के कोरों से छलकता प्रेमामृत,

कपकपाते बदन से अंगड़ाई लेता वात्सल्य,

काफूर होती समस्त पीडाएं,

निराश मन में समेटे अनन्त आशाये,

वो इक माँ ही तो थी।

– विनोद निराश, देहरादून (मंगलवार 19 सितम्बर 2013)

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