दावानल जब षड्यंत्रों का, धधक रहा हो गलियों में,
कैसे मुस्कराऊँ विचारूँ, मैं गद्दारों छलियों में।
कर्मक्षेत्र में जाती बेटी, जब तक लौट न आती है,
कैसे मुस्कराऊँ कहो तुम, नजर स्वजन की पापी है।
आज प्रदूषण हावी इतना, पल – पल श्वांस अटकती है,
मुस्काने का साहस कैसे, हो जब उम्र घिसटती है।
होम दिया शिक्षा में जीवन, लेकिन काम नहीं मिलता,
कैसे मुस्काऊँ बच्चों का, आनन कभी नहीं खिलता।
मँहगाई की मार और फिर, परथन सभी जगह लगता,
हँसना है नामुमकिन जब तक, भ्रष्टाचार नहीं मिटता।
प्रभु चरणों में विनय करूँ नित, भेंट करो मुस्कान हमें,
हँस देती है मूरत कहती, क्यों करते हैरान हमें।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश