संग लहरों के बहा जाता नहीं है ।
सिंधु का तल भी थहा जाता नहीं है ।।
धार के विपरीत ही बहता रहा हूँ ।
बात अपनी जोर से कहता रहा हूँ ।
आग पीकर भी कभी बहका नहीं मैं ,
दर्द अब खुलकर कहा जाता नहीं है ।
संग लहरों के बहा जाता नहीं है ।।1।।
कुछ विषैले नाग भी पीछे पड़े हैं ।
मान मर्यादा मिटाने पर अड़े हैं ।
जान अब कैसे बचायें जालिमों से ,
राज गैरों से कहा जाता नहीं है ।
संग लहरों के बहा जाता नहीं है ।।2।।
भीड़ कल तक काटने को दौड़ती थी ।
जिंदगी हर पल नये सुर छोड़ती थी ।
वक्त की दीमक लगी है देह खाने ,
यह बुढापा यूँ सहा जाता नहीं है ।
संग लहरों के बहा जाता नहीं है ।।3।।
आँख से काजल चुराती चाँदनी है ।
राज छंदों से छुपाती रागिनी है ।
प्यास में सूखी नदी “हलधर” हुआ है ,
रेत का सागर गहा जाता नहीं है ।
संग लहरों के बहा जाता नहीं है ।।4।।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून