neerajtimes.com अयोध्या (उ०प्र०) – 11 अक्टूबर 1987 को भारतीय शांति सेना द्वारा श्रीलंका में जाफना को लिट्टे के कब्जे से मुक्त कराने के लिए ऑपरेशन पवन शुरू किया गया था। इसकी पृष्ठभूमि में भारत और श्रीलंका के बीच 29 जुलाई 1987 को हुआ वह शांति समझौता था, जिसमें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी और श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति जे0 आर0 जयवर्धने ने हस्ताक्षर किया था। समझौते के अनुसार, श्रीलंका में जारी गृहयुध्द को खत्म करना था। इसके लिए श्रीलंका सरकार तमिल बहुत क्षेत्रों से सेना को बैरकों में बुलाने और नागरिक सत्ता को बहाल करने पर राजी हो गई थी। वहीं दूसरी ओर तमिल विद्रोहियों के आत्मसमर्पण की बात हुई, लेकिन इस समझौते की बैठक में तमिल विद्रोहियों को शामिल नहीं किया गया।
श्रीलंका में शांति भंग की समस्या की जड़ में वहां के निवासी सिंघली तथा तमिलों के बीच का झगड़ा था। तमिल लोग वहां पर अल्पसंख्यकों के रूप में बसे हैं। आंकड़े बताते हैं कि श्रीलंका की कुल आबादी का केवल 18 फीसद हिस्सा ही तमिल हैं। तमिल लोगों का कहना था कि श्रीलंका की सिंघली बहुल सरकार की ओर से तमिलों के हितों की अनदेखी होती रही है। इससे तमिल लोगों में असंतोष की भावना भरती गई और इस असंतोष ने विद्रोह का रूप ले लिया। वह स्वतंत्र राज्य तमिल ईलम की मांग के साथ उग्र हो गए।
श्रीलंका सरकार ने तमिल ईलम की इस मांग को न सिर्फ नजरअंदाज किया, बल्कि तमिलों के असंतोष को सेना के दम पर दबाने का प्रयास करने लगी। इस दमन चक्र का परिणाम यह हुआ कि श्रीलंका से तमिल नागरिक बतौर शरणार्थी भारत के तमिलनाडु में भागकर आने लगे। यह स्थिति भारत के लिए अनुकूल नहीं थी। इसीलिए श्रीलंका के साथ हुए समझौते में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स का श्रीलंका जाना तय हुआ।
भारत श्रीलंका समझौते के तहत भारतीय सेना को उग्रवादियों से आत्मसमर्पण कराने के लिए श्रीलंका भेजा गया। लेकिन लिट्टे ने समर्पण नहीं किया और भारतीय सेना के साथ युद्ध छेड़ दिया। शुरुआत में केवल सेना की 54 डिवीजन को ही शामिल किया गया था। लेकिन उग्रवादियों द्वारा बात न मानने पर तीन और डिवीजनों 3, 4 और 57 को उग्रवादियों के सफाये के लिए लगाय गया। 1987 के अक्टूबर तक भारतीय सेनाओं ने लिट्टे के खिलाफ कई अभियान चलाए लेकिन युद्ध खत्म नहीं हुआ।
अक्टूबर 1987 में लेफ्टिनेंट कर्नल इन्दर बल सिंह बावा को श्रीलंका भेजा गया। अपनी बटालियन के साथ वह श्रीलंका के पलाली पहुंचे और तुरंत युद्ध में उतर गए। बटालियन को वासवीलन, उर्मुपीराई और जाफना किले के आसपास के क्षेत्र को उग्रवादियों से मुक्त कराने का काम सौंपा गया था जो कि उग्रवादियों के गढ़ थे। उग्रवादी इस क्षेत्र में काफी मजबूत स्थिति में थे। लेफ्टिनेंट कर्नल बावा ने व्यक्तिगत रूप से ऑपरेशन में अपने सैनिकों का नेतृत्व किया, जिससे आतंकवादियों को भारी नुकसान पहुंचा।
इसके बाद गोरखा राइफल्स को पूर्वोत्तर क्षेत्र में कोंडाविल में 12 सिख लाइट इन्फैंट्री और 10 पैरा कमांडो टीमों के साथ मिलकर उग्रवादियों से निपटने का काम सौंपा गया। लेफ्टिनेंट कर्नल बावा ने उग्रवादियों द्वारा की गयी भारी घेराबंदी वाले इलाके में अपनी बटालियन का नेतृत्व करते हुए 13 अक्टूबर 1987 को उन्हें वहां से सफलतापूर्वक निकाल लिया।
इस ऑपरेशन के दौरान एक आत्मघाती उग्रवादी दस्ते ने उनके ऊपर गोलियों की बौछार कर दी और लेफ्टिनेंट कर्नल बावा शहीद हो गए। लेफ्टिनेंट कर्नल इन्दर बल सिंह बावा को उनके असाधारण साहस, नेतृत्व और सर्वोच्च बलिदान के लिए देश का दूसरा सर्वोच्च वीरता सम्मान “महावीर चक्र” प्रदान किया गया । इस महावीर चक्र को 02 अप्रैल 1988 को श्रीमती लिली बावा ने तत्कालीन राष्ट्रपति श्री रामास्वामी वेंकटरमन से ग्रहण किया। लेफ्टिनेंट कर्नल इन्दर बल सिंह बावा ने 1971 के भारत पाकिस्तान युध्द में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। लेफ्टीनेंट कर्नल बावा की याद में देहरादून में एक सडक का नामकरण उनके नाम पर किया गया है और श्रीमती लिली बावा ने लेफ्टीनेंट कर्नल बावा की स्मृतियों को संजोकर अपने घर के एक कक्ष को शहीद स्मारक का रूप प्रदान किया है।
लेफ्टीनेंट कर्नल इन्दर बल सिंह बावा का जन्म 25 मई 1947 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ था। उनके पिता का नाम डा0 एच एस बावा था। उनकी स्कूली शिक्षा डी०ए० वी० हायर सेकेण्डरी स्कूल शिमला में हुई। उन्होंने 11 जून 1967 को भारतीय स्थल सेना के 4/5 गोरखा राइफल में कमीशन लिया। – हरी राम यादव सूबेदार मेजर (सेवानिवृत्त), अयोध्या , उत्तर प्रदेश फोन – 7087815074