बात कह रहा हूं ,
एकदम सच्ची ।
नही कोई बचकाना ,
नही कोई गुगली ।
परमानंद दे जाती ।
कान में की ,
चुगली और खुजली ।
दोनों क्रियाओं का ,
माध्यम हैं एक ।
दोनों क्रियाओं का ,
असर भी एक ।
दोनों में ,
कान रहता सक्रिय ।
बाकी सब निष्क्रिय ।
ना समय का भान ,
ना खाने का ध्यान ।
आती हैं जब भी ,
चुगली की उबली ।
देखते हैं यहाँ वहाँ ,
आस पड़ोस, आजू बाजू ।
मन होकर बेचैन,
किससे करुं चुगली. .
किससे करुं चुगली …
मिलता जब कोई ,
चुगली के लिए जोड़ी ।
बंद हो जाती फिर ,
समय की घड़ी ।
खुजली की भी हैं ,
इसी तरह की कडी ,
जब होती खुजली ,
ऊँगली से शुरुआत कर ,
ढुंढते हैं यहां वहां,
छोटी, मोटी लकडी ।
माचिस की तीली पर ,
खोज का होता अंत ।
दोनों ही क्रियाओं में ,
चिडचिड़ाहट होती कम ,
दिमाग के साथ ,
मन भी होता शांत ।
चुगली और खुजली की ,
महिमा हैं बेअंत ।
– प्रदीप सहारे, नागपुर , महाराष्ट्र