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हद करते हो तुम – अनुराधा पांडेय

तिक्त शब्दों में तुम्हारे, जोड़ कुछ विष पंक्तियों को ,

सद्य तुमको अर्घ्य दूँगी, शब्द से ही मैं तुम्हारे ।

 

भाव मेरी व्यंजना के, दर्प वश तुमको न भाते,

बोध मर जाता तुम्हारा, काव्य को जब खुद लजाते ।

तीर व्यंगों के चलाते , किन्तु मुझ पर बिन विचारे,

सद्य तुमको अर्घ्य दूँगी, शब्द से ही मैं तुम्हारे।

 

चाहती तुम भूल मेरे , पृष्ठ तक बिल्कुल न आना,

व्यंजना अम्लान मेरी , धूल इसमे मत मिलाना।

साधना को वंचना कह, मूढ तुम-सा ही प्रचारे ,

सद्य तुमको अर्घ्य दूँगी, शब्द से ही मैं तुम्हारे।

 

काव्य का प्रतिमान क्या है , मापनी है क्या तुम्हारी ?

क्या तुम्हारी सोच तक ही, काव्य सरि बहती बिचारी ?

या कहो फिर काव्य नभ के, मात्र तुम ही हो सितारे ?

सद्य तुमको अर्घ्य दूँगी, शब्द से ही मैं तुम्हारे।

अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली

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