है मुकद्दर जुदा ये जुदा हम सभी का,
है किसी की ज़मी आसमां है किसी का।
छोड़ के जो बसे है विलायत सुखी है.
पर जिगर में नशा है वतन की माटी का।
शान शौकत बनाती गई मंजिले ये,
पर सुकूं है मिला अब मुझे कोठरी का।
मौत एक बार ही आती है जिंदगी में,
रोज उठता धुआं कामना बेकारी का।
एक कमाई जहां चार को पालती थी,
गिन रहे वो निवाला बड़ों की रोटी का।
भागते दौड़ते ढूंढ़ते मंजिले है,
अब पता ही नही बेखुदी में खुदी का।
गम-ए- दिल क्या कहे अब किसी से यूं “झरना”
इश्क भी अब बना है जुनूं सौदाई का ।
झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड