देह की देहरी से दुनिया के भंवर तक,
प्रेम की संकल्पना थी मां।
निज उदर में रक्त से सींचा मुझे,
चोट लगने पर सहज भींचा मुझे,
नींद मेरी नींद पर थी वारती,
लोरियां जब हो गईं थी आरती,
रात दिन का अनकहा अनुबंध था,
रोज करती साधना थी मां
देह की देहरी से दुनिया के भंवर तक
प्रेम की संकल्पना थी मां।
भोर की पहली किरण से जागती,
वो घड़ी सबकी,सदा ही भागती,
क ख ग के पाठ की पहली गुरु,
सख्तियां होने न दीं हम पर शुरू,
रोज़ समझाइश दे पढ़ने भेजती,
द्वार की शुभ अल्पना थी मां,
देह की देहरी से दुनिया के भंवर तक
प्रेम की संकल्पना थी मां।
उन अभावों में भी पूरे भाव थे,
दाल, सब्जी, रोटियों में चाव थे,
अन्नदा ,लक्ष्मी कभी दुर्गा हुई,
घर की जगमग को रही जलती रुई,
दिप-दीपाते भाग्य में,सिंदूर में,
योगिनी की मंत्रणा थी मां,
देह की देहरी से दुनिया के भंवर तक
प्रेम की संकल्पना थी मां।
नापना क्या नेह के विस्तार को,
जोड़ती थी आत्मा के तार को,
पथ प्रदर्शक,हौसला,संजीवनी,
मां सदा संघर्ष में रहती तनी,
बाप की पगड़ी का सारा भार ले,
मौन की अभिव्यंजना थी मां,
देह की देहरी से दुनिया के भंवर तक,
प्रेम की संकल्पना थी मां।
– प्रीति त्रिपाठी, दिल्ली