इस चोट खाए दिल को संभालते आए हैं
होगा आगे क्या नहीं बता पाएंगे हम।
हर रोज रात के अंधेरे में मिलते नए गम
कैसे बताएं कब तक रख पाएंगे दम।
जख्म मिले ज्यादा मरहम लगाने वाले कम
कैसे बताएं कब तक ऐसे जी पाएंगे हम।
बेदर्द आलम में होती रही हमारी आंख नम
कैसे बताएं कब तक रोते रहेंगे हम।
बरसात के मौसम में बारिश की छम छम
सिरहाने पे रख सर हुई आंख नम।
हुआ मौसम सुहाना गई बारिश थम
कैसे बताएं कब तक रहे करते इंतजार हम।
तन्हा रातों में उनकी तनहाइयों का ग़म
कैसे बताएं तुमको कैसे जिए तुम बिन हम।
बरसों से बिछाए आंखें बैठे राह में हम
कैसे बताएं तुमको, आखिरी फूल चढ़ाना तुम।
– कल्पना गुप्ता/ रतन (प्रधानाचार्य)
जम्मू एंड कश्मीर जम्मू- 180005