बहुत कुछ छूट गया
बड़ी तमन्ना थी बड़े होने की
सोचती थी,करूंगी अपनी मनमर्जी
पर जिम्मेदारी की ओढ़ा दी गई चादर
भूल गई मैं तो सब कुछ
मां का मनुहार पिता का लाड
वह बेपरवाह हंसी ,वह अल्हड़पन
वो दोस्तों संग बेफिक्र घूमना
चिंता, बेचैनी की दुनियाँ से बेखबर
अपनी ही दुनिया में मस्त रहना
चंपक, पराग और नंदन पढ़ना
बड़े तो हो गए
पर बहुत कुछ पीछे छूट गया है
बचपन के वह सुनहरे दिन
पांच,पैसे से ही अमीर हो जाना
कागज की कश्ती , मिट्टी के घरौंदे
साधन कम, पर खुशियां थी बेशुमार
घर छोटे थे , मगर दिल बड़े थे
तारों को निहारते सो जाना
वो रेडियो का हवामहल
और बिनाका गीतमाला
सुबह होते ही दूरदर्शन का संगीत
छूट गई मैं भी कई हिस्सों में
थोड़ी मां के घर, थोड़ी बच्चों में
थोड़ी बहुत भाई बहनों में
बड़े तो हो गए
पर बहुत कुछ पीछे छूट गया!!
– रेखा मित्तल, चण्डीगढ़