neerajtimes.com – हमारी संस्कृति में तीज त्यौहारों का व्रत उत्सवों का विशेष महत्व है। हमारे व्रत उत्सव सुख,समृद्धि,उत्तम स्वास्थ्य की कामना से भी जुड़े हैं। हमारे पुराण एवं धर्म ग्रंथ भी व्रत उत्सवों की महिमा का सुरुचिपूर्ण वर्णन करते हैं। ऐसा ही व्रत है माता शीतला का। माता शीतला को उत्तम स्वास्थ्य की देवी माना जाता है। होली के सात दिन बाद चैत्र माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को श्री शीतला अष्टमी के रूप में मनाते है। अनेक परिवारों में एक दिन पूर्व सप्तमी तिथि को श्री शीतलासप्तमी मनायी जाती है। उत्तर भारत में इसे बासोरा के नाम से भी जाना जाता है।
इस दिन प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में समस्त दैनिक कृत्यों से निवृत्त होकर शीतल जल(ठंडे पानी) से स्नान करके शीतला माता का पूजन किया जाता है। कहा जाता है कि इस दिन सर्वप्रथम स्वच्छ वस्त्र धारण करके श्रीशीतला माता के समक्ष हाथों में फूल, अक्षत और सिक्का लेकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार, सप्तमी तिथि के दिन या जिनके यहां परम्परा अनुसार सप्तमी को शीतला माता पूजी जाती है वहां षष्ठी तिथि को भोजन बनाने की जगह को साफ व स्वच्छ कर गंगा जल या स्वच्छ जल छिड़क कर माँ शीतला के भोग की सामग्री बनायी जाती है। शीतला माता को शीतल भोग ही अर्पित किया जाता है। जो एक दिन पूर्व बनाया जाता है। भोग की परम्परा हर जगह कुल परम्परा के अनुसार ही होती है। प्रेम, श्रद्धा के साथ भोग स्वरूप कई जगह चावल-गुड़ या फिर चावल और गन्ने के रस को मिलाकर खीर तथा मीठी रोटी बनायी जाती है। कई परिवार राबड़ी और रोटी का भोग या ठंड़े चावल,लपसी और कड़ी का भोग श्री शीतला माता को अर्पित करते हैं। शीतला माता को चने की दाल और दही अनिवार्य रुप से हर जगह चढ़ाया जाता है।
श्रीशीतला सप्तमी या अष्टमी पर माँ दुर्गा के स्वरूप शीतला माता की पूजा की जाती है। माँ शीतला को फूल, माला, सिंदूर, सोलह श्रृंगार की सामग्री अर्पित करने के साथ ही उन्हें शुद्ध और सात्विक बासी या ठंडे भोजन का भोग लगाकर जल अर्पित किया जाता है। इसके साथ ही बासी भोजन को प्रसाद के रूप माता को अर्पित किया जाता है। बाद में परिवार के सभी सदस्य शीतलामाताजी को लगाये भोग को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं। इस व्रत को करने से आरोग्य का वरदान मिलता है। मान्यता है कि माता शीतला बच्चों की गंभीर बीमारियों एवं बुरी नजर से रक्षा करती हैं। कई जगह माताएँ इस दिन गुलगुले बनाती हैं और शीतला अष्टमी के दिन इन गुलगुलों को अपने बच्चों के ऊपर से उबारकर कुत्तों को खिलाती हैं उनकी मान्यता है कि ऐसा करने से विविध प्रकार की बीमारियाँ बच्चों से दूर रहती हैं।
स्कंदपुराण के अनुसार श्रीशीतला माता गधे की सवारी करती हैं और हाथों में कलश, झाडू, सूप तथा नीम की पत्तियाँ धारण किए रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि माता शीतला की पूजा करने से बच्चों को निरोग रहने का आशीर्वाद तो मिलता ही है साथ ही बड़े-बुजुर्गों को भी आरोग्य सुख का लाभ मिलता है। बच्चों की बुखार, खसरा, चेचक, आंखों के रोग से रक्षा होती है। यह व्रत माताएँ प्रमुख रूप से बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य एवं समस्त बीमारियों से मुक्ति और उनकी दीर्घायु की कामना के लिए रखती हैं। यह व्रत नियम, संयम तथा शुचिता व स्वच्छता के साथ रखना चाहिए। व्रत के दिन व्यर्थ वार्तालाप व दिन में शयन नहीं करना चाहिए।
पौराणिक कथा के अनुसार, देवलोक से देवी शीतला अपने हाथ में दाल के दाने लेकर भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर के साथ धरती लोक पर राजा विराट के राज्य में रहने आई थीं। लेकिन, राजा विराट ने देवी शीतला को राज्य में रहने से मना कर दिया। राजा के इस व्यवहार से देवी शीतला क्रोधित हो गई। शीतला माता के क्रोध की अग्नि से राज्य में लोगों की त्वचा पर लाल लाल दाने हो गए। लोगों की त्वचा गर्मी से जलने लगी थी। तब राजा विराट ने अपनी गलती पर माफी मांगी। प्रायश्चित स्वरूप राजा ने देवी शीतला को कच्चे दूध और ठंडी लस्सी का भोग लगाया, तब माता शीतला का क्रोध शांत हुआ। तब से माता शीतला देवी को ठंडे पकवानों का भोग लगाने,चने की दाल और दही चढ़ाने की परंपरा चली आ रही है। स्कंद पुराण के अनुसार, देवी शीतला का रूप अनूठा है। देवी का वाहन गधा है। वे अपने एक हाथ के कलश में शीतल पेय, दाल के दाने और रोगाणुनाशक जल रखती हैं, तो दूसरे हाथ में झाड़ू और नीम के पत्ते रखती हैं। चौंसठ रोगों के देवता, घेंटूकर्ण (त्वचा रोग के देवता), हैजे की देवी और ज्वारासुर (ज्वर का दैत्य) इनके साथी होते हैं। स्कंदपुराण के अनुसार, देवी शीतला के पूजा स्तोत्र शीतलाष्टक की रचना स्वयं भगवान शिव ने की थी।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार मां शीतला ने सोचा कि पृथ्वी पर जाकर देखती हूं कि आखिर मेरी पूजा कौन-कौन करता है। ऐसे में वे एक बुढ़िया का रूप लेकर एक गांव में पहुंच गई। जब माता गांव में पहुंची,तो किसी ने उनके ऊपर उबले चावल का पानी डाल दिया। जिसके कारण उनके पूरे शरीर में छाले हो गए और जलन होने लगी। ऐसे में मां शीतला ने हर किसी से सहायता मांगी लेकिन किसी ने भी उनकी मदद नहीं की।
मां शीतला को रास्ते में एक कुम्हार परिवार की महिला मिली। उस महिला ने जैसे ही उन्हें देखा वैसे ही उन्हें घर में बुलाकर उनके ऊपर ठंडा पानी डाला। इससे मां की पीड़ा कुछ कम हुई। तब माता ने उस महिला से खाने के लिए कुछ मांगा। उस महिला ने कहा कि मेरे पास तो रात के बचे दही और ज्वार की राबड़ी ही है, तो माता ने उसे ही भोजन रुप में ग्रहण कर लिया। इस भोजन से उन्हें अंदर से शीतलता भी मिली। इसके बाद कुम्हारिन ने माता से कहा कि आपके बाल काफी बिखरे हुए है लाओ इन्हें मैं संवार देती हूं। जब वह महिला माता के बाल संवार रही थी तभी उसे मां के सिर में तीसरी आंख दिखी। जिसे देखकर कुम्हारिन भयभीत होकर भागने लगी। इस पर मां ने कहा कि पुत्री भागो मत मैं शीतला मां हूं और पृथ्वी पर भ्रमण के लिए निकली हूं। कुम्हारिन ने जैसे ही इस बात को सुना वह भाव विभोर हो गई है और मां के सामने झुक गई और कहा कि मेरे घर में ऐसा कुछ नहीं है जिस पर मैं आपको बिठा सकूं। ऐसे में मां मुस्करा कर कुम्हारिन के घर में खड़े गधे पर बैठ गई।
कुम्हारिन के निस्वार्थ भाव से प्रसन्न होकर माता ने उसे वर मांगने के लिए कहा, तब उसने मां से कहा कि आप हमेशा इसी गांव में निवास करें। इसके साथ ही जो व्यक्ति चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी तिथि को आपकी पूजा करने के साथ बासी भोजन का भोग लगाएगा। उसे हर बीमारी से मुक्ति मिलने के साथ सुख-समृद्धि प्राप्त हो। माता शीतला ने कहा कि ऐसा ही होगा।
इसी कारण शीतला माता को बासी भोजन का भोग लगाया जाता है , जिससे घर के प्रत्येक व्यक्ति को उत्तम स्वास्थ्य और सुख समृद्धि की प्राप्ति हो सके। इस दिन शुद्ध सात्विक बासी भोजन का भोग लगाया जाता है, जिसका उद्देश्य यही है कि अब सम्पूर्ण गर्मी के मौसम में ताजे भोजन का ही प्रयोग करना चाहिए।(विभूति फीचर्स)