(१)
अनिकेत नहीं हूँ मैं!
मेरा भी एक घर है!
मेरा भी शहर है! !
मेरा बिस्तर है!
खाली सड़कों का कोना!
मेरा होता है सोना !
अनिकेत नहीं हूँ मैं!
मेरा भी घर है!
(२)
सूना पंथ सलोना,
आने को कोई आए!
जाने को कोई जाए!!
कोई कुछ भी कह जाए!
गालियाँ भले दे जाए!!
ठाट लगा सोता हूँ!
नहीं हमें कोई भय !
अनिकेत नहीं हूँ मैं!
मेरा भी घर है।
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इस कविता पर समीक्षात्मक टिप्पणी:
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कभी मैने कविकर्म और कविता की परिभाषा तो नहीं किंतु एक परिधि खींचने का एक लघु प्रयास किया था –
“एक आह एक वाह एक कराह है कविता / कभी मंजिल तो कभी श्मशान है कविता / कभी शोक, कभी मौन, कभी श्रृंगार है कविता / जब कुछ नहीं है तब भी सामने होती है कविता”।।
आज ऐसी ही एक “आह”, एक “कराह”, की सशक्त अभिव्यक्ति डॉ. ओमप्रकाश मिश्र मधुव्रत जी की इस कविता “अनिकेत नहीं हूं मैं” में हुई है। इसमें किसी बेघर, अनिकेत की आह, पीड़ा, दर्द की ऐसी बहुआयामी अभिव्यक्ति हुई है जो इस दर्द और गहन पीड़ा को एक व्यंग्य की धार देकर और भी पैनी, तीक्ष्ण, नुकीला और उपादेय बना देती है। यह अभिव्यक्ति मर्म और व्यवस्था पर जोरदार प्रहार करती है। बात जब प्रहार की आती है तो मुझे नागार्जुन की व्यंग्यात्मक उस कविता का सहसा स्मरण हो आता है जिसका शीर्षक है – “प्रेतात्मा का बयान”। … नहीं नरकेश्वर! , मैं भूख से नहीं मरा …. चाहे पोस्टमार्टम करके देख लो कहीं न कही पुश्तैनी पोखर के “कर्मी शाक” के एक टुकड़े का अंश दिख जाएगा। … वह तो पेचिश और खाली आंत की बीमारी से मै मरा, भूख से नहीं।
बाद में धूमिल ने भी गरीबी, रोजी, रोटी और इसकी व्यवस्था पर प्रश्न उठाया था – “एक रोटी बेलता है … एक रोटी खाता है … और एक न बेलता है, न खाता है, वह इस रोटी से खेलता है”। मानव जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं – रोटी, कपड़ा और मकान। भूख और रोटी की बात “बाबा नागार्जुन” और “धूमिल” उठा चुके हैं। बात घर की, मकान की, कुटिया की शेष रह गई थी।
अब एक कुटिया, घर की बात, “निकेत” की बात “मधुव्रत” जी सशक्त ढंग से उठा रहे हैं इस कविता में। पीड़ित का कथन मैं अनिकेत (बेघर) नहीं हूं, मेरा भी एक दिव्य घर है – यह इंद्रधनुषीय आकाश, इसका कोई कोना, सड़क का कोई निर्जन किनारा…यह एक करारा व्यंग्य है। पीड़ा का यह व्यंग्य उस समय अपनी सर्वोच्चता को प्राप्त होता है जब वह बेघर कहता है – “… गालियां भले कोई दे जाए / ठाठ लगाकर सोता हूं / नहीं हमें कोई भय / मेरा भी घर है”।
इस प्रकार यह कविता व्यंग्य विधा और कठोर सत्याभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण है। निर्माण, सृजन और श्रृंगार के गायक का एक सर्वथा नवीन रूप इस कविता में दिखाता जो श्री मधुव्रत जी के बहुआयामी कवित्व का परिचायक और संपूर्ण जीवंत कवि होने की सशक्त घोषणा करता है।
(यह मात्र संयोग है या अभावग्रस्तों के प्रति गहरी मानवीय संवेदना कि ये तीनों ही कवि उस वर्ग से आते है जिन्हें उच्चवर्ग / शोषक वर्ग, सम्पन्न वर्ग की श्रेणी में रखा, समझा जाता रहा है।) संवेदनशील रचनाकारों ने सतत दरिद्र नारायण के रूप में मानवता की उपासना की है। मानव, मानव ने वर्गभेद, जातिभेद नहीं किया। कवि कर्म ही है पीड़ित की बात सत्ता, सत्ताधीश, तक पहुंचना। यहां बात न बनी तो ईश्वर से न्याय की गुहार। यही तो कवि की पूजा भी है, साधना और आराधना भी। वर्तमान में क्या चिंतक, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री खुले मन से निष्पक्ष हो इस विंदु पर विचार करेंगे?
नागार्जुन: मूल नाम श्री वैद्यनाथ मिश्र
धूमिल: मूल नाम श्री सुदामा पाण्डेय
मधुव्रत: मूल नाम डॉ ओम प्रकाश मिश्र
– डॉ जयप्रकाश तिवारी, बलिया/लखनऊ, (उत्तर प्रदेश)