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प्रेम इश्क – सविता सिंह मीरा

ये इश्क़ नहीं आसान….

यह प्रेम इश्क और प्यार, स्नेह वगैरह

कहते हैं लोग इन शब्दों में ही

दिखती है विकलांगता है,

तो पूर्ण कहाँ से हो पाएगा इश्क़

अधूरा ही रह जाएगा।

आधा”श”और आधा “प”

यह दोनों विकलांग हैं,

लेकिन इश्क ने श को

अपने भीतर रखा,

आधे प को यार ने

अपने से समेट प्यार बना दिया।

तो इन शब्दों में ही प्रेम की पराकाष्ठा निहित है।

इश्क मोहब्बत प्यार

हर क्षण हर पल मुझको

हो जाता है यार।

जब भोर सवेरे सूरज की किरणे

पर्दे से लड़-झगड़ आ जाती बिस्तर पर

मैं उसे धूप को भर लेती अकवारी

और इश्क की चढ़ जाती खुमारी।

वह बारिश की मतवाली बूँदे,

छू लेती कभी जो आनन को मेरे,

उस शीतलता भरी स्पर्श से

फिर हो जाता प्यार बेशुमार।

बिखरे कहीं जब पथ पर हरसिंगार,

उन्हें समेट लेती आँचल में,

पुष्प से भरे आँचल को जब

लगा लेती कलेज़े से,

जो चैन बस जाता सीने में

लगता स्वयं मेरे मोहन के

प्रसाद को लगा रखी हूँ कलेज़े से,

उसे अदृश्य भक्तिमय एहसास से मुझे प्रेम है।

गऊ को खिलाकर एक निवाला

आस भरे नैनों से फिर गऊ का तकना

फिर पुकारती आहहहह आह्ह,

सुनकर पुकार दरवाजे पर गऊ पुनः आ जाती

गऊ का मेरे दरवाजे पर आने से इश्क है मुझे।

बारिश की प्रथम स्पर्श चूमती जो तृषित धरा को,

बांहे फैलाये धरणी जज़्ब कर लेती बूँद को अपने भीतर,

उस बूंद धरा के मिलन से मुझे इश्क है।

चँदा जब देखे मेरी ओर

निहारे चांद को कोई और चितचोर

चंदा में चितचोर की दिखती जो मृदुल नयन

तो कैसे न हार बैठे मन ?

बस हो जाता हमें हर पल हर क्षण

बेइंतहा इश्क मोहब्बत प्यार।

यह विकलांग नहीं है यार

आजू-बाजू से कस ले उसको

जैसे इश्क ने छुपाया आधे श को

प्यार ने अपनाया प को।

– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर

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