जब भी लौटता हूँ मैं घर को,
दीवारों की खामोशी,
कोने के सूनेपन में,
एक अदृश्य सन्नाटे में लिपटी,
वो खामोशी जो किसी जश्न के बाद,
वातावरण में पसर जाती है,
हर रोज़ होता हूँ, रू-ब-रू उससे।
पलभर में याद आ जाती है,
न जाने कितनी स्मृतियाँ,
याद आता है तुम्हारे चेहरे के साथ-साथ,
काँधे पर रखना वो सर तेरा और
पलटते पन्नो सरीखी वो सरसराहट,
जिनको पढ़कर तुम आकंठ तृप्त हो जाती थी,
हर रोज़ होता हूँ, हू-ब-हू उससे।
इक तरफ तेरी जुदाई का आलम,
दूसरी तरफ अनवरत एकाकीपन,
कभी सावन की रिमझिम तो
कभी बरसात की पहली बूँद से,
खुश्क जमीन से उठती उमस,
हर रोज़ होता हूँ, कू-ब-कू उससे।
कभी-कभी हठीली चाहते,
कभी बेरंग सी ख्वाहिशें,
कभी तृषित निराश मन की मृग तृष्णा,
रुदन, क्रंदन से लबरेज़ उर अंतस,
कंठ तक आते-आते रुकती शिकायतें,
हुक और पीडाओं में उठता द्वन्द,
हर रोज़ होता हूँ, जू-ब-जू उससे।
– विनोद निराश , देहरादून