ज्यों ही दीप जले दिल जलता,
अरमानों से आह निकलता।
नैंना तरसें टप-टप बरसे,
जीवन में यह कैसी जड़ता।
उजाला मन को नहीं भाये,
अंधेरों से हाँथ मिलाये।
व्याकुलता हद से बढ़ जाती,
रह-रह के ये दिल घबड़ाये।
दीप शिखा डोले कुछ बोले,
भेद न अपने मनका खोले।
चंचलता में राज छुपाये,
डर जाता जीवन ना तोले।
आखें बंद सदा मुसकाये,
दीपशिखा ना आह जगाये।
ये दिल तो हरदम जलता है,
और कहीं जल मिलें दुआयें।।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह
धनबाद, झारखंड