मैं और मेरी ये अलमारी,
एक दूजे को बेहद प्यारी,
जैसे ही मैं उसके पट खोलू,
कपड़े चरण छूते बस हमारी,
मैं और मेरी ये अलमारी।
मगर दिल बहुत बड़ा है उसका,
हर मौसम एक व्यवहार है उसका,
सबके मन को ही वो है भाती,
वो ही देती जो होता जिसका,
मैं और मेरी ये अलमारी।
ऊपर से नीचे तक भरी है,
जगह जरा सी उसमें नहीं है,
पर जब भी मैं बाहर जाऊं,
कोई भी ड्रेस उसमें नहीं है,
मैं और मेरी ये अलमारी।
अलमारी की विडंबना देखो,
झगड़े की उसकी आदत देखो,
चाहे उसको कितना सम्भालू ,
सुधरना कहां चाहती देखो,
मैं और मेरी ये अलमारी।
– झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड