मनोरंजन

कविता – रेखा मित्तल

मौन गूँजता है

धरा से क्षितिज तक

मौन का फलक विस्तृत है

ध्वनियों की होती हैं

कुछ विशेष तरंगें

जो तय कर सकती हैं,

इक निश्चित दूरी

परंतु…मौन’ गूँज सकता है

अनंत के उस पार तक भी

मौन शिथिल कर देता हैं

तुम्हें और तुम्हारे अहम् को

तभी चंचल हिरणी-सी स्त्रियांँ

बन जाती है मूक पाषाण-सी

ध्वनियों को समझना आसान हैं

परंतु मौन को समझना

कला है एक बेहतरीन

छू सकता है वहीं

मौन की तरंगों को

जिया है जिसने शिद्दत से मौन को

मौन कुछ नहीं कहता

परंतु फिर भी बहुत से ज्यादा कहता है

मौन जब वर्षों से होता है संगृहीत

परिवर्तित हो लावा,ज्वार में

फूट पड़ता है वेग से

और असमय हिला देता है

जड़ें अस्तित्व की

सृष्टि को भी दे चुनौती

मौन हो जाता हैं मुखर

– रेखा मित्तल। चण्डीगढ़

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