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बचपन का गाँव – प्रियंका ‘सौरभ’

ठण्डी-ठण्डी छांव में

उस बचपन के गाँव में

मैं-जाना चाहती हूँ।

तोडऩा चाहती हूँ

बंदिश चारों पहर की।

नफरत भरी ये

जिन्दगी शहर की॥

अपनेपन की छाया

मैं पाना चाहती हूँ।

उस बचपन के गाँव में

मैं-जाना चाहती हँ हूँ॥

घुट-सी गयी हूँ

इस अकेलेपन में

खुशियों के पल ढूँढ रही

निर्दयी से सूनेपन में

इस उजड़े गुलशन को

मैं महकाना चाहती हूँ।

उस बचपन के गाँव में

मैं-जाना चाहती हूँ।

प्रेम और भाईचारे का

जहाँ न संगम हो।

भागे एक-दूजे से दूर

न मिलन की सरगम हो॥

उस संसार से अब

मैं छुटकारा चाहती हूँ।

उस बचपन के गाँव में

मैं-जाना चाहती हूँ।

—प्रियंका ‘सौरभ’, 333, परी वाटिका, कौशल्या भवन,

बड़वा (सिवानी) भिवानी,  हरियाणा

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