झुका नज़र रुत हंसीन कर गई,
दिल बेचैन नाज़नीन कर गई।
बिखरा के जुल्फों को शानों पर,
तन्हा शाम मेरी रंगीन कर गई।
मख़मली से रुखसार सुर्ख लब,
फरेब वो बू-ए-नसरीन कर गई।
सुफेद दुपट्टा वो कानो की बाली,
जुर्म मुझपे वो संगीन कर गई।
मिज़ाजे-मौसम तो बेहतर था पर,
उसकी बेरुखी बे-रंगीन कर गई।
चैनों-सुकूं कहाँ रहा बादे-रुखसत,
निराश ज़िंदगी ग़मगीन कर गई।
– विनोद निराश , देहरादून