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इतवार – प्रदीप सहारे

आज का वार ,

रविवार -संडे – इतवार ।

पुरी तरह से ,

बायको का वार ।

आज नहीं चलता,

कोई आपका हथकंडा ।

बस चलता ,

बायको का फंडा ।

आपको खड़े रहना हैं,

बनकर मुस्टंडा ।

नहीं तो चलेगा ,

बेलन का डंडा ।

बेलन के डंडे की,

बचाना हो मार ।

थैला लेकर,

निकलो बाजार ।

बाजार जाकर ,

बिन भाव करें ,

सब्जी लो चार ।

चाय की टपरी पर ,

व्यक्त करो विचार ।

घर आकर,

महंगी हुई सब्जी के,

दाम बताओ बार बार ।

बायको झल्लाये तो!

पढो अखबार, देखो समाचार ।

समाचार देखते ही,

घुरती आँखे ,बर्तन का शोर ।

“एक दिन रहते घर में,

बैठे कामचोर मियां ,

दिन रात काम करती,

नहीं पिघलता हीयां ।

नौकरानी समझ रखा . .

तुझे ओ .. दया । ”

सुनकर यह शोर ,

रखो अखबार एक ओर ।

एक नज़र देखो,

दया की ओर ।

झाडू लेकर घुमो,

घर में चारों ओर ।

देखों कही लगे,

जाले – वाले ।

झुरल दिखे तो ..

जोर से चिल्लाओ ..

” कहां छुप रहा साले ”

साले शब्द सुनते,

मचे फिर हंगामा ।

घंटा भर चले ,

रिश्तो का ड्रामा ।

ड्रामा खत्म होते ही,

खाना तैयार ।

खाने पर बैठे,

पूरा परिवार ।

फिर हँसी-मज़ाक,

खिलखिलाता परिवार ।

इंतजार में अगला इतवार ।

✍ प्रदीप सहारे, नागपुर, महाराष्ट्र

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