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दीपावली – झरना माथुर

हर दीये के नूर की अपनी किस्मत होती है,

जाने किस नूर में छप्पर की अस्मत होती है।

 

वो सांझे चूल्हों की जो होती थी दीवाली,

अब तो बस मतलब से जुड़कर उल्फ़त होती है।

 

अब भी राघव अल्लाह  दोनों मिलकर हंसते हैं,

जिनमें देश खातिर मिटने की मसर्रत होती है।

 

ऊजाला अपने पीछे अंधेरा लाता है,

दीपक मे उससे लड़ने की हिम्मत होती है ।

 

कुछ रूहे अब भी जिस्मों में जिंदा है “झरना”

जिनकी आंखों में अब भी वह गैरत होती है।

– झरना माथुर , देहरादून, उत्तराखंड

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