Neerajtimes.com – हमारे देश में बात जब जल संकट की होती है तो अनुपम मिश्र सहज याद आ जाते हैं। उनका चिंतन आज भी प्रासंगिक है।अनुपम जी अपनी पीढ़ी के आखिरी ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत को पर्यावरण की राजनीति समझाई। वही वो व्यक्ति थे,जो चिपको आंदोलन में गए और जब वापस आए तो एक हकीकत भरी कहानी उनके साथ लौटी।उन्होंने बताया कि चिपको आंदोलन सिर्फ पेड़ों तक सीमित नहीं था बल्कि लोगों के राजनीतिक पक्षपात से भी जुड़ा हुआ था। लोग पर्यावरण के लिए लड़ रहे थे क्योंकि यह उनके अस्तित्व की लड़ाई थी। उन्होंने पर्यावरण की विशुद्ध राजनीति को समझाया, यह भी समझाया कि इस देश में हाशिए पर खड़े गरीबों की राजनीति कौन सी है और आखिर उनका भुलाया हुआ और उपेक्षित किया जाने वाला ज्ञान कैसे विकास का हिस्सा बनेगा।अपने ढंग से उन्होंने लोक को समझने का प्रयास किया।
गांधी शांति प्रतिष्ठान में साथ बिताए वर्षों के दौरान, अनुपम मिश्र चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व वाले चिपको आंदोलन से बहुत प्रभावित हुए। सत्येंद्र त्रिपाठी के साथ, उन्होंने चिपको आंदोलन लिखा , जो भारत और दुनिया भर के लोगों का ध्यान “पेड़ों को गले लगाने” के इस अनूठे आंदोलन की ओर आकर्षित करने में बहुत प्रभावशाली था। सामूहिक अहिंसक प्रतिरोध के इस प्रेरक और प्रभावी रूप में, महिलाओं और पुरुषों ने मांग की कि अगर कोई पेड़ काटा जाना है, तो उन्हें भी उसके साथ काटा जाना चाहिए।
भारत में सदियों से अपनाई जा रही जल संरक्षण तकनीकों की जानकारी में उन्हें महारथ हासिल थी। उन्होंने देश-विदेश में बताया कि किस तरह भारत के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले लोग अपनी भौगोलिक स्थिति, संसाधनों की उपलब्धता और जरूरतों को समझते हुए जल संरक्षण के कारगर तरीके अपनाते थे। उनका कहना था कि आधुनिक जल परियोजनाएं इन पारंपरिक तरीकों के आगे फीकी और कम असरदार हैं।
उनके निधन के बाद धीरे- धीरे लोगों ने उन्हें विस्मृत कर दिया। पर्यावरण के संदर्भ में वे देशज ज्ञान के वाहक थे। गांधी शांति प्रतिष्ठान जो उनकी कर्मभूमि थी, उनकी स्मृतियों को खत्म किया जा रहा है। वहीं झारखंड में गोदावरी फांउडेशन द्वारा अनुपम मिश्र को याद किए जाने के कई मायने हैं।
वे ऐसे व्यक्ति थे जो बिना किसी नाम के, बिना आवाज के, बिना गाजे-बाजे के, बस अच्छे काम कर रहे थे। अनुपम जी व्यक्ति खोजते थे, उसे तराशते थे और उसके साथ काम करते थे। इनमें जल पुरूष राजेन्द्र सिंह के साथ साथ कई हस्तियों के नाम हैं।
पर्यावरण संरक्षण आज के युग की बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। भारत में इसका असर विविध रूपों में देखने को मिल रहा है।देश में पर्यावरण का संरक्षण करने के लिए तक़रीबन 200 से भी अधिक कानून हैं, लेकिन लगभग सभी कानूनों का खुलेआम उल्लंघन होता है इसलिए भारत सर्वाधिक प्रदूषित देशों की सूची में आता है और पर्यावरण संरक्षण के लिए कोई कदम अभी तक प्रभावी सिद्ध नहीं हो पाए हैं। दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ रहा है, सूखा और जंगली आग अधिक बार होने लगी है, वर्षा के पैटर्न बदल रहे हैं, ग्लेशियर और बर्फ पिघल रहे हैं और वैश्विक औसत समुद्र स्तर बढ़ रहा है।
भारत में हाल ही में आई जानलेवा गर्मी और सूखे के लिए आंशिक रूप से जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराया गया है। विश्लेषण से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन ने ऐसी घटना की संभावना को लगभग 30 गुना बढ़ा दिया है। इसके अलावा, अतिरिक्त वैश्विक तापमान वृद्धि के साथ इसी तरह की घटनाओं की संभावना बढ़ती रहेगी।
अनुपम मिश्र को साल 1996 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया था। जमना लाल बजाज पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कार भी उनके नाम हैं। अनुपम के पिता भवानी प्रसाद मिश्र हिंदी के प्रख्यात कवि थे।जल संरक्षण के क्षेत्र में उन्होंने काफी योगदान दिया है। भारत के गांवों में घूम-घूमकर वह लोगों को पानी बचाने और जल का संरक्षण करने के पारंपरिक तरीकों के बारे में जागरूक करते थे। भारत के पारंपरिक जल संरक्षण तकनीकों की उनकी समझ को लेकर वह ना केवल भारत, बल्कि विदेशों में भी काफी मशहूर थे। उनकी पुस्तकें, खासकर “आज भी खरे हैं तालाब” तथा “राजस्थान की रजत बूंदें”, पानी के विषय पर प्रकाशित पुस्तकों में मील के पत्थर के समान हैं, और आज भी इन पुस्तकों की विषयवस्तु से कई समाजसेवियों, वाटर हार्वेस्टिंग के इच्छुकों और जल तकनीकी के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को प्रेरणा और सहायता मिलती है। सबसे बड़ी खासियत है कि अनुपम जी ने खुद की लिखी इन पुस्तकों पर किसी प्रकार का “कॉपीराईट” अपने पास नहीं रखा है। इसी वजह से “आज भी खरे हैं तालाब” पुस्तक का अब तक विभिन्न शोधार्थियों और युवाओं द्वारा ब्रेल लिपि सहित 19 भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। सामाजिक पुस्तकों में महात्मा गाँधी की पुस्तक “माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ” के बाद सिर्फ़ यही एक पुस्तक ब्रेल लिपि में उपलब्ध है। सन् 2009 तक, इस अनुकरणीय पुस्तक “आज भी खरे हैं तालाब” की एक लाख प्रतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
सही अर्थों में भारतीय परिवेश, प्रकृति को गहराई तक समझने वाले अद्भुत विचारक,पर्यावरणविद, निश्चित ही अपनी तरह के विरले कर्मयोगी।अनुपम मिश्र पानी बचाने के लिए हमेशा आगे रहे, एक बार गांधी शांति प्रतिष्ठान के परिसर में उनसे मिला, साथ में सूचना एवं जनसंपर्क के उपनिदेशक शिवशंकर सिंह पारिजात थे, उन्होंने पूछा – कितना पानी पियोगे – आधा गिलास या उससे ज्यादा या फिर पूरा गिलास, जितना पियोगे उतना ही दूंगा। पानी बहुत कम है। इसे बर्बाद मत करना।
पत्रकार प्रसून लतांत के अनुसार झारखंड में याद करने और उनकी स्मृति में पर्यावरण के क्षेत्र में काम रहे लोगो को सम्मानित किए जाने के कई मायने हैं। एक तो उनके काम की पहचान और अच्छे कार्यो के लिए प्रोत्साहित करना है ताकि अच्छे काम करने वालों की कमी न हो। प्रसून के मुताबिक अनुपम मिश्र की स्मृति में घनश्याम (झारखंड) , निलय उपाध्याय(बिहार),सुरेश भाई (उत्तराखंड) , अमरनाथ (पटना ), कमल कश्यप (दिल्ली) , डॉक्टर दुर्गा दत्त पाठक (चंपारण), डॉक्टर कुंदन कुमार , राम प्रकाश रवि(सुपोल बिहार), शिरोमणि कुमार (भागलपुर), राजेश कुमार सुमन (रोसड़ा, बिहार ), निर्भय सिंह (कटनी मध्य प्रदेश) ,राकेश कुमार(मुंगेर बिहार), इस्लाम हुसैन (उत्तराखंड), प्रेमलता सिंह (बिहार), प्रोफेसर डी एन चौधरी (भागलपुर), डॉ उत्तम पीयूष (मधुपुर)शेखर (रांची) ,अमित मकरंद (वैशाली बिहार), समीर अंसारी(देवघर), संदीप कुमार शर्मा(उत्तर प्रदेश) संतोष बंसल(दिल्ली) ,बरखा लकड़ा(झारखंड), संजीव भगत(झारखंड),विनोद भगत (झारखंड), धीरज कुमार सिंह( जमुई), संजय कुमार ( पटना ) प्रमोद झिंझड़े (सोलापुर महाराष्ट्र), दर्शन ठाकुर (उज्जैन), खेम नारायण शर्मा (छत्तीसगढ़), जितेंद्र कुमार (समस्तीपुर), कुमार कृष्णन (बिहार), संजय कुमार (दरभंगा), नंदकिशोर वर्मा (उत्तर प्रदेश), निशांत रंजन (सारण) को रांची में अनुपम मिश्र की स्मृति में राष्ट्रीय पर्यावरण सेवी सम्मान से सम्मानित किया जाएगा। झारखंड के संदर्भ मे अनुपम मिश्र को याद किया जाना काफी महत्वपूर्ण है।जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और इंडियन स्कूल ऑफ माइंस, धनबाद की ओर से राज्य भर के लिए किए गए एक अध्ययन के मुताबिक पिछले दो वर्षों में रांची और झारखंड के अन्य हिस्सों में जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में बताया गया कि रांची में अत्यधिक आबादी, पिछले 50 सालों में तालाबों का अस्तित्व खत्म होने, कम बारिश की वजह से घटते जल स्तर की वजह से भी पानी की कमी हुई है। इस हाल में अनुपम मिश्र की पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’की प्रासंगिकता बढ़ गयी है। उनका मानना था कि तालाबों का महत्व न केवल पानी की आपूर्ति में होता है,बल्कि इससे समुदाय के आत्मिक और सामाजिक विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। संस्कृति और परंपराओं के साथ तालाबों के सांस्कृतिक महत्व भी है। विकास की तरफ़ बेतहाशा दौड़ते समाज को कुदरत की क़ीमत समझाने वाले अनुपम ने देश भर के गांवों का दौरा कर रेन वाटर हारवेस्टिंग के गुर सिखाए। वह ज्ञान समय की मांग है। नदी के सवाल पर उनका चिंतन था— नदी का भी अपना एक धर्म होता है। एक स्वभाव होता है। नदी का धर्म है बहना,बहते रहना।पिछले एक दौर में हमने विकास के नाम पर, तकनीक की सहायता से नदी के इस धर्म को पूरी तरह बदल दिया है। खेती, उद्योग और शहर में पीने का पानी जुटाने हमने गंगा समेत हर नदी से पानी खींच लिया है। साफ पानी लिया है और फिर इन तीनों गतिविधियों से दूषित हुआ पानी वापस नदियों में डाल दिया है।(विनायक फीचर्स)