neerajtimes.com – जसप्रीत कौर फ़लक़ के सह्र्दय प्रकाशित काव्य-संकलन ‘कैनवस के पास’ गद्य-पद्य में काव्यार्चन के सुवासित पुष्प लेकर हिंदी साहित्य जगत में उपस्थित है। स्नेह-सुवासित इस संग्रह के काव्य-सुमन ह्र्दय क्षेत्र को आप्लावित करते हैं। यहाँ प्रेमजल से सिंचित मन भावनाओं के अनेक इंद्रधनुष खिलाता है। प्रेमजन्य पीड़ा भी कवयित्री ने कविताओं में व्यक्त की है और यही पीड़ा उन्हें रचनाकर्म के लिए प्रेरित करती गई है। प्रकृति उसकी सहचरी है एवं कल्पनाओं का एक उन्मुक्त संसार उसके शब्दों का उद्यान!
प्रकृति का आँचल थाम लिखी गई कवयित्री की वेदना-गाथा ही उसकी अधिकांश रचनाओं में मुखर है।
पेड़ों से लिपटी बेलें
जगा रही हैं कसक
मन की वेदनाएं उमड़ रही हैं
छूना चाहती हैं प्रेम का क्षितिज ( भीगी चाँदनी , पृ. 35)
जिस गद्य को पद्य में समाहित किया है, वह भी पद्यात्मक है। एक बानगी प्रस्तुत है-
लोग कहते हैं आवाज़ की कोई आकृति नहीं होती। मगर, मुझे नज़र आ रहा है तुम्हारा चेहरा….तुम्हारी आँखों में वही कशिश है….तुम्हें दूर जाकर भी रहना होगा मेरे आसपास… (जुदाई की तहरीर, पृ.37)
न जाने
कितने पतझड़ आ खड़े हुए
बसन्त का जामा पहन कर
मगर
अविचल पड़ी रही
यह प्रेम की शिला।
वर्चस्ववादी विचारधारा में स्वामी, फ़न के कातिल, संगदिल लोगों के यथार्थ को जानकर कवयित्री ने उनकी वृत्तियों को प्रकाशित किया है-
वो चाहते हैं हमारी मुट्ठी में रहें
सारे सितारे, सारे जुगनूँ
मगर अब मैं
समझ गई हूँ उनकी फ़ितरत
मुझे नहीं है ऐसी रौशनी की ज़रूरत
मैं खुश हूँ
मेरे पास हैं लफ़्ज़ों के चराग़
इल्म की रोशनी। (लफ़्ज़ों के चराग़, पृ.62)
मीरा और महादेवी की प्रेम की पीड़ा उनके काव्य का प्रमुख स्वर रहा अथवा इस प्रकार कहना अधिक समीचीन होगा कि विरह-व्याकुलता प्रेरक प्रतिपाद्य बनी। इसी वेदनानुभूति के परिप्रेक्ष्य में कवयित्री जसप्रीत कौर फ़लक की भाव-तीव्रता भी उनके शब्दों में स्पष्ट रूप से मुखर हुई है। देखिए-
प्रेम के रस में भीगे तन-मन
मन का नगर बना वृंदावन
मैं हूँ तेरी युगों से जोगन
साँच कहो मेरे मनमोहन
तुम मुझसे रूठ तो न जाओगे (वेदनाओं की माला, पृ. 63)
आधुनिक समय में प्रेम-सम्बन्धों में भी दैहिक आकर्षण मुख्य है। भोगवृत्ति में प्रवृत्त प्रेमी पुरुष का आत्मिक नैकट्य न मिल पाना कवयित्री को सालता रहता है। नारी पुरुष के निकट मात्र भोग्या है, इससे अधिक उसमें आत्मा भी है, यह उसकी विचार-परिधि से बाहर है। निदर्शन प्रस्तुत है-
वज अपने पल गंवा देता है
हवस की महफिलें सजाने में
बस एक जिस्म को पाने में
वह नहीं जानता
रिश्तों की मर्यादा
प्रेम की परिभाषा
मन का समर्पण
वह लालसा में गंवाता है
अपना हर एक क्षण ( मैं हर पल, पृ.66)
इसी कविता में एक गद्य-टिप्पणी में वे लिखती हैं-
तुम्हें पाने की तड़प में अब जुनून भी है और सुकून भी है…स्पर्श से ज़्यादा लम्बी होती है कल्पनाओं की उम्र…।
फिर भी प्रेयसी के समर्पण में कोई कमी नहीं है। वह अपने जीवन में दीप्त सभी सुखद भावनाओं, अनुभूतियों का जनक अपने प्रियतम को ही स्वीकारती है-
घनघोर घटाओं में
कल्पित व्यथाओं में
मेरे नाम का अर्थ समझाने वाले
तुम्हीं तो हो (तुम्हीं तो हो, पृ. 71)
शब्दालंकारों से सज्जित उनकी भाषा में एक अलग ही गरिमा है-
रात गहरा रही है और मैं जाग रही हूँ
तुम्हें सुनाने के लिए
पिघलती रात के काजल से लिखी नई कविता
और भी-
उम्मीद की टहनियों पे जो फ़ूल थे
वो झर गए (वस्ल की चाँदनी, पृ.73)
एक अन्य कविता में नदी के माध्यम से कवयित्री ने नारी – मन की जुझारू मनोवृत्ति को लेखनीबद्ध किया है। यह उनके जीवट एवं रचनाधर्मिता के प्रति प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती कविता है-
मैं बने बनाए हुए
रास्तों पर नहीं चलती
मुझे आता है राह बनाने का हुनर
मेरा टेढ़ा मेढ़ा और लम्बा है सफ़र
मैं नदी हूँ
मेरा स्वभाव है ख़ामोश रहना।निरन्तर बहना…निरन्तर चलना (मैं नदी हूँ, पृ. 76)
जीवन की अपूर्णताओं, दुश्वारियों एवं चुनौतियों के बीच कवयित्री आशावादिता के स्वर से सुख-संगीत की सृष्टि करना चाहती है। आशाओं के रंगों से ज़िन्दगी के अधूरे चेहरे में रंग भरने की अभिलाषा रखती है-
यह सोच कर कि
मेरे बाद जो लोग आएं
उन्हें प्रकृति के कैनवस पर
ज़िन्दगी का चेहरा
उदास नहीं मुस्कुराता दिखे
धुंधला नहीं स्पष्ट दिखे
रंग भरा, भरपूर, खिलखिलाता नज़र आए
इसी कोशिश में मुहब्बत के रंग लेकर बैठी हूँ (ज़िन्दगी….आधी अधूरी सी, पृ.80)
एक सच्चे साथी का सम्बल नारी के लिए कितना शक्तिदायी व सार्थक हो सकता है, इसका रेखांकन भी फ़लक़ करती हैं-
तुमसे दिल के रिश्ते हैं
जो पवित्र और सच्चे हैं
तुम्हारे होने से
मेरे जज़्बात महके हैं
तुम मेरी अभिव्यक्ति हो
तुम मेरी शक्ति हो
तुम मेरा स्वाभिमान हो
तुम मेरा अभिमान हो (ज़िन्दगी के मोड़ पर, पृ. 82-83)
कवयित्री कल्पनालोक में विचरण करती हैं तथा एक रुमानियत से भरे आलम में स्वयं को पाती हैं। फ़लक के यहाँ कविता की रचना करना दैनिक जीवन के तल्ख़ यथार्थ से कुछ क्षणों के लिए मुक्ति प्राप्त कर सुखद अनुभूतियों के लोक की यात्रा है-
कभी -कभी ख़याल आता है
कि ख़ुशबू की तरह साथ हवा में उड़ती जाऊँ
मैं परियों के देश में जाकर
उनको अपना गीत सुनाऊँ (कभी-कभी ख्याल आता है, पृ.105)
प्रेम की शाश्वतता में विश्वास करने वाला कवयित्री का मन कह उठता है-
मैं मुहब्बत को जब भी लिखूंगी
तो दिल के सफ़ीहों पे लिखूंगी
कि कोई मिटा न सके जिसे
मैं जान गई हूं
मुहब्बत तख्तियों पे लिखने की चीज़ नहीं होती (मुहब्बत, पृ.21)
कितना भी मनोरम-सुरम्य प्राकृतिक स्थल हो, प्रेमी ह्रदय को वह अपने प्रेमास्पद के बिना अपूर्ण ही प्रतीत होता है। ऐसे ही किसी क्षण को जीवंत करतीं फ़लक़ लिखती हैं-
उठो, आओ! कैनवस के पास
इन नज़ारों की तस्वीर बनाओ
इनके हुस्न को कुछ और बढ़ाओ
इनमें मुहब्बत का रंग भर दो
इन नज़ारों को मुकम्मल कर दो
आओ ! कैनवस के पास (कैनवस के पास, पृ. 23)
बिम्ब-विधान इन कविताओं का कलेवर है। प्रकृति के कैनवस के हर रंग को शब्दों में ढाल कर आर्ट गैलरी -सा यह काव्य-संग्रह सृजित किया गया है। अधिकांश कविताएं सब्जेक्टिव टोन की हैं। उनमें वर्णित भावुकता, मिलनातुरता, विरहवर्णन की मुखरता, संयोगवस्था के श्रृंगार-चित्र, आत्मिक तृप्ति हेतु व्यथा और अपनी सृजन की प्रेरणा- इन सब पक्षों में कवयित्री की निजी अनुभूतियों की प्रबलता पृष्ठभूमि में विद्यमान है।
गद्य-भाग दार्शनिकता से ओतप्रोत है, जिसे पढ़ना सुखद लगता है। वस्तुतः इनकी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगता है।
भाषा में हिन्दी-उर्दू का संगम इसे अलग ही छटा प्रदान करता है। उनकी कविताओं में शब्द भावानुसार आकृति लेते गए हैं। इन कविताओं के अनुशीलन से कतई नहीं लगता कि ये सप्रयास सृजित हुई हैं। इनमें अबोधता, निश्छलता के साथ-साथ कहीं-कहीं रूहानियत तक पहुंच भी है। यह पहुँच सौभाग्यशाली रचनात्मक विभूतियों को सहज प्राप्त होती है। इस पर भी विचारों की प्रौढ़ता-परिपक्वता इनमें निहित मानवीय भावों का साक्ष्य भी प्रस्तुत करती है।
प्रस्तुत काव्य-संकलन कवयित्री के साहित्य-साधिका-रूप का एक अन्य निदर्शन है, जो निश्चय ही एक पड़ाव कहा जाएगा। उनसे भविष्य में भी सार्थक सृजन की अपेक्षा जागती है।
डॉ. सुरेश नायक, पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर व अध्यक्ष, पटेल मेमोरियल नेशनल कॉलेज, राजपुरा, #1359, अरबन एस्टेट, फेज़ दो,पटियाला।