लिखने की …
एक ख्वाईश थी…
कि लिखूँ तुझे…
तुझे निहारी तुझे पढी़…
पर लिख न पाई तुझ पर …
एक शब्द भी…
खुद पर लिखना …
ज्यादा सरल था…
न निहारने की जरूरत …
न पढ़ने की…
बस कलम उठाई और …
लिखने बैठ गई…
जो आज हूँ वही …
कल भी रहूँगी…
फर्क होगा तो …
सिर्फ छवि में…
सुरत बदलेगी मेरी …
पर सिरत नहीं…
खुद को …
आज भी प्यार करूँगी…
और कल भी…
खुद को जानने का…
दावा कर सकती हूँ…
पर तुझको नही….
इसलिए …
अब तुझ पर नहीं…
खुद पर लिखूँगी…
कुछ ऐसा कि…
तुम मजबूर हो जाओ…
मुझे पढ़ने को…
मुझे समझने को…
और तड़प जाओ …
मुझे पाने को….
.✍सुनीता मिश्रा, जमशेदपुर