ठहरा हुआ सा है, मंजिल करीब है।
नापें कैसे दूरी, नहीं कोई जरीब है।
दिया था बहुत उसने,सब जमाने को दे दिया।
अब कर नजर इधर, देख सामने गरीब है।
बहुत मिले राहों में,सबको अपना समझ लिया।
सोचा न समझा,किसने क्या लिया क्या दिया।
यादों का रेला है, दुनिया का खेला है।
लोगों के मेले में, फिर भी दिल अकेला है।
मन क्यों है चाहता, यादों के साथ रहना।
नहीं वहां है कुछ भी, अब है अकेले रहना।
माना कि मीठी यादें, ललचा के बुलाती हैं।
कड़वी भी बहुत हैं यादें, छोड़ अब आगे है बढ़ना।
रोता है क्यों, शिकायत न कर।
लेता है एक जब वो,देता है झोली भरकर।
सब कुछ है परिवर्तन, आगे ही बढ़ना है।
सोच मत ये ना समझ ,जाना भी तो बढ़ना है।
– डी.एल.श्रीवास्तव , छत्तीसगढ़