पाषाण काल से ही प्रकृति पूजा का प्रचलन है
विश्व गुरु का ध्येय सदा से ध्यान, योग, चिंतन है।
जिसकी छाँव में पले बढे,
हम सुखी और समृद्ध हुए,
जिसकी ममता के आंचल में,
सब कार्य हमारे सिद्ध हुए।
सोचिए, विचार करिए..
क्या किए गए उपकार का बदला,
दोहन, शोषण, हनन है?
अंधाधुंध जो नित वृक्षों को
जबरन हम सब काट रहे हैं,
उनके हिस्से की धरती को,
टुकड़े टुकड़े बाँट रहे ।
उसी कोप ने जहरीली गैसों को
हवा, खाद , पानी दिया ह।
सोचो! भला इस कृत्य ने आखिर,
किसका, कितना भला किया है?
अति की चाह सदा करती है
जीवन का शमन, दमन है,
विश्व गुरु का ध्येय सदा से,
ध्यान, योग, चिंतन श्रेष्ठ है।
कुछ प्रश्न खड़े इस ओर भी
देखें तो जरा चहुँ ओर।
यह सूर्य का बढ़ता ताप,
या हम सबके कर्म, पाप।
धरती रूखी, सूखी, बेज़ार
या किसी दुखद घटना का तार।
स्वाँसो में घुटन की आतीबास,
फीके होते सब प्रयास।
अट्टालिकाओं की अबूझी प्यास
अपने हाथों अपना विनाश।
आधुनिकता का यह,
कैसा चलन चल रहा है?
विश्व गुरु का ध्येय सदा,
ध्यान, योग, चिंतन है।
हृदय में छिद्र लिए
बिलख रही ओजोन परत,
कृत्रिमता की ओट लिए
तू गिरता जाता और गर्त।
वाहवाही की आड़ में,
कितने तू खिलवाड़ करेगा?
चेत न पाया अब जो तू,
घुट घुटकर बेमौत मरेगा।
आने वाली पीढ़ी के लिए,
क्या तू संदेश गढ़ेगा?
हे पाषाण हृदय मानव!
तेरा यह खेल कब तक चलेगा,
क्या सर्वस्व हवन करेगा?
अपने चारों ओर फैला आवरण
जिसे हम कहते हैं पर्यावरण,
उसे समझें और जाने
प्रकृति के सुंदर स्वरूप का ,
करें हम आप संरक्षण।
इसके लिए जरूरी,
हम सब करें आत्म मंथन है।
विश्व गुरु का ध्येय सदा से,
ध्यान, योग, चिंतन है….।
– डॉ अणिमा श्रीवास्तव , पटना ( बिहार)