तपन से त्रस्त जनजीवन पुकारे घन चले आओ,
मिटाओ ताप धरती का कलाधर बन चले आओ।
दिखाया क्रोध सूरज तो कुआँ तालाब सब सूखे,
बुझाने प्यास जीवों की लिए जल धन चले आओ।
कुपोषित हैं विटप समुदाय कैसे दें हमे छाया,
जलद जी आप वृक्षों हेतु बन जीवन चले आओ।
धरा पर अब सिकुड़ते जा रहे हैं स्त्रोत जीवन के,
मिले जीवन नवल सबको कहे धड़कन चले आओ।
बढ़ी जो प्यास मानव की घटे कैसे सुझाओ घन,
सजाने आप अब अपनत्व का आनन चले आओ।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश