एहसासों के परे
जिंदगी से कैसे कोई ख्वाहिश न रखूं
एक दिल मैंने भी तो संभाल रखा है
एक स्त्री होने के नाते!
बुनती हूँ हर रोज उम्मीद के धागे से
तुम्हारे सपनों की चादर
ताकि तुम सो सको चैन की नींद!
तुम्हारी जरूरत तुम्हारे कहने के पहले
जान लेती हूँ मैं
माथे पे पड़ी सिलवटें
अपने आँचल से सहलाना चाहती हूँ!
तुम भी तो कोई कोशिश ऐसी करों न
जब मैं परेशान रहूँ
रखन देना अपनी हथेली मेरी हथेली के ऊपर
बस तुम्हारा साथ ही मेरे लिये काफी है!
प्यार की नदी जो बहती है
मेरे अंदर
कभी समेट तो लो तुम बनके
सागर!
झेल सकती हूँ कई आंधी
और तूफान भी
तुम्हारे लिये
क्योंकि बस एक तुम्हीं तो वजह हो
जीने की मेरी!
– राधा शैलेन्द्र, भागलपुर, बिहार