ख्वाबे-यार में दस्तक देके जगाता रहूँगा,
तू जागे या न जागे तुझे जगाता रहूँगा।
बेशक रहा करे ख्याल-ए-गैर में गुमसुम,
ख्वाबो-ख्यालों मे तुझे ही बुलाता रहूँगा।
जब भी परवाज़ भरेंगी आवारा ख्वाहिशे,
लम्हा-दर-लम्हा उन्हें मैं सुलाता रहूँगा।
बेशक फ़िक्र-ए-इश्क़ में रब को भूल जाऊँ,
मगर तेरी याद में खुद को रुलाता रहूँगा।
न सुना कर तू भी रुदादे-दिल-ए-निराश,
पर तस्करा-ए-इश्क़ तुम्हे सुनाता रहूँगा।
– विनोद निराश, देहरादून