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तुम – सविता सिंह

जो छंदों में ना गढ़ पाऊँ, कहो मुहँ  मोड़ लोगे तुम,

अलंकारों से रहूँ अनभिज्ञ, सखे क्या छोड़ दोगे तुम।

 

तुम प्रिये ज्ञानरूपी प्रद्योत, करो रोशन बनूँ खद्योत,

मेरे  शब्दों के भावों  को, जान कर जोड़ लोगे तुम।

 

हमारे  श्लेष भी तुम हो मेरे अनुप्रास भी तुम हो,|

अलंकारों  से अलंकृत हो मेरे संप्रास भी हो तुम ।

 

जो संधि हुई तुम्हारे संग कभी विच्छेद मत करना,

जुड़े  उपसर्ग प्रत्यय  सा मेरे मधुमास भी हो तुम ।

– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर

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