चलो आज बातें करते है,
प्रेम की !
उस प्रीतम प्रेम की,
जो चाह के भी,
परवान न चढ़ सका कभी।
यूँ तो भोर की पहली किरण के साथ,
परवाज़ भरी थी उसने,
मगर संध्या बेला के साथ ही,
सिमट गया था वो,
जो हक के लिए न लड़ सका कभी।
बस फरेबी खूश्बू सी बन के
रह गया इश्क़ मेरा,
बस गया दिल मे किसी के कोई,
बेवफा मैं बन गया और
इल्जाम उसपे न मढ सका कभी।
कभी नाकामियों की ज़िदद,
कुछ दुर्भावनाओ के अशेष अंश,
निर्मल झील मे विहार करते स्वप्न,
निराश ज़िंदगी के कोरे कागज़ पे,
अल्फ़ाज़े-मुहब्बत न गढ़ सका कभी।
– विनोद निराश, देहरादून