बाबू के उठते परछाईं,
प्रेम कहुँ ना पड़े देखाई।
तोर मोर बेबाते होला,
हिस्सा बखरा रोज लड़ाई।
मय गँवई दुअरा आ झाँके,
हर केहू बा हातिमताई।
अकिला फूआ घर में पइठे,
होता खूबे कान फुकाई।
खर्चा के चर्चा सगरो बा,
खरचा उधारी के चुकाई।
लेवे के बेरी सब आगे,
देवे में ना धराइछुआइ।
अब बटवारा हीं निदान बा,
आपन खर्चा आप उठाईं।
हमरो घर परिवार बढ़त बा,
हम काहे कमीनी लुटाईं।
बाबू रहले सब कुछ ढ़कले,
अपना बेरी रोज लड़ाई।
फेटा कसके बोलस रानी,
जलदी से अलगा हो जाईं।
दुनिया में ई रीत चलल बा,
होला बस जे कहे लुगाई।
देखीं खेल निराला बावे,
केहू ना केहू के भाई।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह
धनबाद, झारखंड