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उजाले के भी दायरे – ज्योत्स्ना जोशी

भीतर कहीं शोर अपने उफान पर हो

तब अधर गहरी खामोशी ओढ़ लेते हैं

किसी अंधेरे कोने को बेशक ताउम्र

शिकवा रहा है,

लेकिन उजाले के भी अपने दायरे हैं।

कुछ रास्तों का सफ़र तन्हा ही करना पड़ता है,

बहुत भीड़ हो इर्द-गिर्द चलना मुश्किल

हो जाता है।

थोड़ा थोड़ा हर हिस्से में बंटने की

अदायगी जैसे रिश्तों को सींचते

रहने की कवायद हो।

छलना और जानबूझकर छला जाना

दोनों में बहुत अंतर है

कोई किसी को क्या ही छल सकता है

जब तक कोई छलने की स्वीकार्यता

न रखता हो।

– ज्योत्स्ना जोशी, देहरादून , उत्तराखंड

 

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