हो रही अभ्यस्त जनता, मुफ्त के उपहार की।
जन हृदय से लापता है, भावना उपकार की।
हम हमारे खुश रहें श्रम बिन यही है कामना।
पीर औरों की न हमको भूलकर भी जानना।
पूछते मन से न अब हम खैर रिश्तेदार की……… ।
चाह जन को जाँचने की अब न वोटर पालता।
देखता हित मात्र अपना लोक हित को टालता।
लालसा पनपे न जन में देश के शृंगार की…… ।
हो नहीं सकती प्रगति बस राम के गुणगान से।
हम बढ़ायें मित्रता नित राम की पहचान से।
है बहुत हमको जरूरत न्याय सच आधार की……… ।
— मधु शुक्ला, सतना , मध्यप्रदेश