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गीत – जसवीर सिंह हलधर

माना मैं ख़ामोश रहा पर, तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।

मंचों पर चढ़ गए चुटकुले , दो पग आगे डोल न पाए ।।

 

वाणी का वरदान मिला था , तुम साहित्यक महा रथी थे।

मुक्त छंद के मकड़जाल को , लाए कुछ साहित्य पथी थे ।

अपने सिद्ध पीठ से उठकर ,उनकी राह टटोल न पाए ।।

 

बहुत सरल होता है कविवर ,ऊंची ऊंची बात बनाना ।

लेकिन काम कठिन भाई , महाकव्य साहित्य सजाना ।

छंदों का संहार हुआ जब,क्यों अपना मुँह खोल न पाए ।।

 

सच है इस खींचा तानी में , टूटे हिंदी  महल कंगूरे ।

कविता हुई बंदरिया इनकी , मंचो पर छा गए जमूरे ।

मैं तो छंदों में बंदी था ,तुम भी तो कुछ तोल न पाए ।।

 

सच है दौड़ नहीं पाए हम , रुपयों की आपा -धापी में ।

सम्मानों के वितरण में भी, झोल हुआ नापा -नापी में ।

चाटुकारिता के शर्बत में , “हलधर”क्यों विष घोल न पाए ।।4

माना मैं ख़ामोश रहा पर ,तुब भी तो कुछ बोल न पाए ।।

– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून

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