बड़ी शिद्दत से सहेज कर समेट कर,
रखी है मैंनें हमारी कुछ हसीं शामें
अपने ख्वाबों की अलमारी में
बहुत करीने से सँभाल कर
जब कभी याद आती हैं तुम्हारी
तो चली जाती हूँ उस अलमारी में
ओढ़ लेती हूँ तुम्हारे साथ बिताए पल को
और कुछ ही क्षणों में ज़िंदगी जी लेती हूँ
मुश्किल बहुत हैं इन यादों को भूलना
परंतु मैंनें तो इनके साथ जीना सीख लिया
क्योंकि भूलना भी आसान नहीं था
वह अधूरा प्रेम था या कुछ ओर
जो अकुंरित हुआ उस गुलमोहर के नीचे
आज भी निकलती हूँ वहाँ से कभी
तो लगता हैं गुलमोहर आवाज़ दे रहा हैं
यह आवाज़ तुम्हारी हैं या उस गुलमोहर की
समझ नहीं पाती हूँ!!
रेखा मित्तल, चण्डीगढ़