मनोरंजन

छठी मंजिल – प्रदीप सहारे

पहली मंजिल का अफसर,

अक्सर लेता ऑफिस सर ।

काम का रहता तीनकारा,

रहता हमेशा थकाहारा ।

कहता कभी झुंझलाकर,

“क्या सब काम हैं,

मेरी ही  जीम्मेदारी !!

क्या करता हैं,

दूसरे मंजिल का मॅनेजर ?

मिटींग पर मिटींग दिनभर |

क्या. . क्या.. हमें नही,

परिवार और घर ? ”

प्रश्न उसे अपने मन में,

बहुत बार खलता ।

दूसरी मंजिल के मॅनेजर को,

मन ही मन जलता ।

फिर बना वह मैनेजर,

शिप्ट हुवा दुसरी मंजिल पर ।

बदले बदले से लगे,

उसके तेवर ।

दो Dependent थे ,

अधिकार के निचे ।

खुश था भीतर ही भीतर ।

लेकिन….. लेकिन …..

लगता तब मजबुर ,

जब तीसरी मंजिल का,

Voice President

करता विदेश के टुर ।

वह उसे खलता,

हर किसी को बोलता ।

” हमें हैं काम की सजा .

साहब करते विदेश में मजा । ”

फिर उसके भी मजे का ,

आया वह एक दिन ।

तीसरी मंजिल की कुरसी पर ,

हुआ आसिन ।

होने लगा दील में,

धीन … ताक … धीन ।

.विदेश के टुर होने लगे,

आयें एक दिन ।

फिर भी मन रहता उदासीन ।

चौथे मंजिल पर पीठासीन,

President पूछता ,

टारगेट  आयें दिन ।

टारगेट का पूछना,

उसे बड़ा खलता  ।

और फिर वह बोलता ,

” साहब का क्या ?

टारगेट हैं बोलना !!

पता नहीं हैं उन्हें,

टारगेट के लिए ,

कितने पापड़ पड़ता बेलना ।

उनका क्या ?

आओं ,बैंठो, मिटिंग करों …

बस् , एक बार हमें मिले मौका,

देखों कैसे लगाता चौका – छक्का । ”

मिला फिर एक दिन,

चौथे मंजिल का मौका ।

मिलें पुरे एक कंपनी के अधिकार ।

काम भी थे नाना प्रकार ।

नीचे की तीन मंजिल भी थी ,

आधिकार के नीचे ।

मारने लगे अपने अधिकार का,

छक्का कभी चौका ।

सब कुछ था मन मुताबिक ।

चल भी रहा था ,

सब All is well   I

लेकिन … लेकिन …

पाँचवी मंजिल का MD,

खेलने लगा अपना खेल ।

बार बार बजाने लगा ,

मोबाईल की बेल ।

हर काम में देने लगा,

कुछ ज्यादा दखल ।

नहीं समझ आ रहा था,

दखल का हल ।

दखल का हल थी ,

MD  की  कुर्सी ।

फिर भगवान की,

कृपा  एक दिन बरसी,

मिल गयी भाया को ,

MD की कुर्सी ।

दमदार थी कुर्सी ,

दमदार थी केबिन ।

मन में लड्डू फुटे ।

दिल करें ताक. . धिन. .

केबिन में चारों तरफ,

ग्रुप कम्पनियों के डिसप्ले ।

समझ समझ से समझ रहें ,

यह निर्णय लें की ,वह ले ।

चल रही उधेड़बुन सारी ।

सब कुछ तो चल रहा सही ,

लेकिन … लेकिन …

सुई आकर अटकती वहीं ,

जब जाना पड़ता था ,

छठी मंजिल पर ,

लियें हुए निर्णय पर ,

लेने को सहीं ।

वह उसे मन में खलता ।

CHAIRMAN सहीं करते हुए ,

कुछ ना कुछ बोलता ।

तब उसका मन ,

CHAIRMAN  की कुरसी को,

देखकर जब डोलता ।

और मन ही मन बोलता ।

“काश … ! !

यह मुझे अगर मिल जायें ।

तो जिंदगी के सब अरमान ,

पुरे  हो जायें । ”

हुये फिर एक दिन ,

दिल के अरमान पुरे ।

दिन में सात बार लियें ,

छठी मंजिल के फेरे ।

दिल करें हिप हिप हुर्रे ।

छत पर जाकर देखें ,

निचे के प्यारे नज़ारे ।

फिर हुये कुर्सी पर आसिन ।

व्यस्तता से भरा ,

रहने लगा दिन ।

दिल भी न करें ,

अब धिन  ताक धिन ।

लॉस -प्रोफिट -गुना – भागा कार ।

ना जाने टॅक्स के,

कितने प्रकार ।

जो लग रहा था कुछ आसान ।

आयें दिन उठने लगा ,

सर पर आसमान ।

बार बार गरम होने लगा सर ,

अपने से खुश दिखने लगा ,

पहले मंजिल का अफसर ।

मिलें जीवन में ,

आपको यह सब अवसर ।

ना छोड़ना ,

बस् …..

” खुला आसमां,

खुला समंदर । ”

– प्रदीप सहारे, नागपुर , महाराष्ट्र

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