तारकों की यूथिका पर नाम सन्दर्भित किया था,
तब लगा प्रिय ! प्रीत में हम वस्तुत: पागल हुए थे।
वे दिवस भी क्या दिवस थे,जब मिले स्वर्णाभ पर थे ।
तब हमारे यों लगा ज्यों व्योम के उस पार घर थे ।
जड़ प्रकृति को भी तुम्हारे नेह ने दीक्षित किया था ।
रात रानी-सी निशा तब और दिन संदल हुए थे ।
जब तुम्हारी स्निग्ध सुधियां एक क्षण को भी घिरी थी ।
तब तुम्हारी देह सौरभ वन विजन में आ गिरी थी ।
तीर प्रेमिल जब नयन ने तान कर लक्षित किया था ।
प्रेम में आकुल हृदय द्वय हाय ! तब घायल हुए थे ।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली