ये समंदर को गुमां होता है,
कोई उस जैसा कहाँ होता है।
वक़्त पे झुकना जिसे आता है,
उसके क़दमो मे जहाँ होता है।
वो बहा देता है बस्ती बस्ती,
और दरिया भी फ़नां होता है।
जिसने सैराब ज़माने को किया,
खुद वो सैराब कहाँ होता है।
रूह पे मेरी मुझे लगता है,
लम्स का उसके निशां होता है।
उससे मिलती हूँ अगर मै “झरना”,
दर्द आँखों से बयां होता है ।
सैराब – तृप्त
लम्स – स्पर्श
झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड