आकाश झिलमिला गई ये रेत की नदी ।
माहौल खिलखिला गई ये रेत की नदी ।
फौलाद को गला दिया ठंडे कढ़ाव में,
कर एक सिलसिला गई ये रेत की नदी ।
तूफान दूर से मुझे यूं घूरता रहा ,
पाताल को हिला गई ये रेत की नदी ।
खिलने लगे गुलाब शुष्क रेगजार में ,
मेघों को तिलमिला गई ये रेत की नदी ।
अदबी मुकाम दे गई औगड़ गंवार को ,
सम्मान वो दिला गई ये रेत की नदी ।
बस एक गांव की तलाश थी फ़कीर को ,
देकर उसे जिला गई ये रेत की नदी ,
जिसने कहा कि क्या मुझे शऊर नज़्म का ,
उसको कढ़ी पिला गई ये रेत की नदी ।
“हलधर” उसी अदीब को निकले थे खोजने ,
दुष्यंत से मिला गई ये रेत की नदी ।
– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून